सत्ता के अहंकार ने इन्हें जनता से दूर कर दिया ।
एक दूसरे को हराने के चक्कर मे भाजपा की जीत को आसान कर रहे हैं सपा , बसपा , राजद लोजपा और जदयू
असलम परवेज
2005 में जिस तरह राजद नेता सत्ता के घमंड में चूर थे कि इस बार भी वही सत्ता में लौटेंगे, लेकिन हुआ ठीक उल्टा। विपक्षी दलों ने ‘जंगलराज’ का मुद्दा जोर-शोर से उठाया और लालू यादव को सत्ता से बेदखल कर दिया। इसके साथ ही राजद का मजबूत किला ढह गया।”
ठीक वैसे ही जैसे 2005 में राजद सत्ता के घमंड में चूर था, 2025 में नीतीश कुमार और उनका एनडीए गठबंधन भी उसी आत्ममुग्धता में नजर आ रहा है। नीतीश, तेजस्वी या चिराग पासवान — तीनों का अपना-अपना राजनीतिक कद और जलवा है। सभी सत्ता में आना चाहते हैं, लेकिन कोई किसी के साथ चलने को तैयार नहीं। एक ओर कांग्रेस तथाकथित क्षेत्रीय दलों को खास पसंद नहीं करती, तो दूसरी ओर भाजपा भी छोटे-छोटे क्षेत्रीय और कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा वाले संगठनों और दलों से अंदरखाने परेशान है।”
1989 में जिन राजनीतिक दलों ने कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए भाजपा के साथ मंच साझा किया था, उन्हीं में से अधिकांश आज कांग्रेस के साथ मिलकर या अलग-अलग लड़कर भाजपा को सत्ता से बाहर करने की रणनीति बना रहे हैं। हालांकि, पिछले कई चुनावों में यह देखने को मिला कि गठबंधन बनने के बावजूद विपक्ष भाजपा को सत्ता से बेदखल करने में सफल नहीं हो सका।
जब इसके कारणों की पड़ताल की गई, तो सामने आया कि राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर तो गठबंधन हो गया, लेकिन ज़मीनी स्तर पर गुटबाजी, भीतरघात और वोट कटवा रणनीति हावी रही। क्षेत्रीय स्तर पर एक-दूसरे के खिलाफ काम करना आम बात बन गई, जिससे सीटों का बंटवारा बिगड़ा और भाजपा को सीधा फायदा मिला।
कई सीटों पर खुद महागठबंधन के नेताओं ने एक-दूसरे को हराने के लिए भीतर से काम किया। दरअसल, कई गैर-कांग्रेसी विपक्षी दल नहीं चाहते कि कांग्रेस दोबारा मजबूत हो, और न ही वे किसी मुस्लिम नेतृत्व को उभरने देना चाहते हैं। उनका डर यह है कि अगर कांग्रेस मजबूत हुई, तो मुस्लिम वोट वहीं जाएगा, और अगर AIMIM जैसी पार्टियां उभरीं, तो ये वोट उनके हाथ से निकल जाएंगे। यही वजह है कि गठबंधन के बावजूद विपक्ष भाजपा को हराने में बार-बार नाकाम रहा है।”
1989 के बाद सत्ता और सामाजिक ध्रुवीकरण: एक सच्चाई
1989 के बाद जब देश में गैर-कांग्रेसी सरकारें आईं, तो अधिकांश दल सत्ता के लाभ और अपनी राजनीतिक ज़मीन मजबूत करने में ही लगे रहे। वहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने रणनीतिक रूप से अपने संगठन को मजबूती देने का काम किया — कभी धर्म के नाम पर, तो कभी जातीय समीकरणों के ज़रिए।
भाजपा ने खासकर पिछड़े और दलित वर्ग के उन नेताओं को साथ लिया जिन्हें अन्य दलों में नजरअंदाज किया जा रहा था। इन्हें राजनीतिक अवसर, पहचान और मंच दिया गया। इसके साथ ही भाजपा ने एक सुनियोजित रणनीति के तहत इन वर्गों के मतदाताओं के बीच यह धारणा भी मज़बूत की कि मुसलमान उनके शत्रु हैं और हिन्दू समाज ख़तरे में है।
यह धारणा धीरे-धीरे समाज में इस हद तक फैलाई गई कि मुस्लिम समुदाय को एक “दूसरे” के रूप में देखा जाने लगा। भाजपा ने इस वर्ग के युवाओं के मन में मुसलमानों के खिलाफ नफ़रत भरने में अहम भूमिका निभाई।
दूसरी ओर, जो नेता मुस्लिम वोटों के समर्थन से सत्ता में पहुंचे, उन्होंने कभी भी अपने समाज को यह समझाने का प्रयास नहीं किया कि मुसलमान न पहले उनके दुश्मन थे और न आज हैं। यदि पिछड़े और दलित वर्ग के नेता केवल एक महीने तक भी अपने समाज को जागरूक करने का काम करें — तो भाजपा को सत्ता से बाहर करना मुश्किल नहीं होगा, और देश में फैला यह ज़हर भी खत्म हो सकता है।
पिछले वर्षों में जो भी मॉब लिंचिंग या सांप्रदायिक घटनाएं हुईं, उनमें उच्च वर्ग के लोगों की भूमिका अपेक्षाकृत कम दिखी। संघ और उससे जुड़े संगठनों ने बार-बार दलित और पिछड़े वर्ग के युवाओं को ही मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया — यह न केवल चिंताजनक है, बल्कि सामाजिक एकता के लिए भी घातक है।
समय आ गया है कि हम धर्म और जाति के ज़रिए नफरत फैलाने वालों की साज़िशों को पहचानें और आपसी विश्वास और भाईचारे की एक नई इबारत लिखें।
अगर आप चाहें तो मैं इस लेख को एक सोशल मीडिया पोस्ट, ब्लॉग आर्टिकल या न्यूज़ वेबसाइट के लिए भी फ़ॉर्मेट कर सकता हूँ।
AIMIM से गठबंधन क्यो नही करती तथा कथित सेक्युलर पार्टियां ?
ओवैसी की पार्टी AIMIM को पिछले कई चुनावों से कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों द्वारा अछूत बना कर रख दिया गया उनको अपने आप को सेक्युलर कहने वाले दल गठबंधन का हिस्सा क्यो नही बनाते ?
“विपक्ष की सबसे बड़ी भूल यह है कि उन्होंने यह मान लिया है कि देश का मुसलमान सिर्फ भाजपा को हराने के लिए उन्हें वोट देगा। वे यह समझने में असफल रहे हैं कि अब मुसलमान सिर्फ भावनाओं में बहकर वोट नहीं देता। जिस तरह एक ओर मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ी हैं और दूसरी ओर मुसलमानों के घरों पर बिना कानूनी प्रक्रिया के बुलडोज़र चलाए जा रहे हैं — इन दोनों के बीच सियासी दलों की चुप्पी ने मुसलमानों को अपनी राजनीतिक सोच पर फिर से विचार करने पर मजबूर कर दिया है। अब वे अपने बुनियादी मुद्दों, शिक्षा, रोज़गार और बच्चों के भविष्य को प्राथमिकता देने लगे हैं।”
खास कर उत्तर प्रदेश व बिहार में मजलिस का ग्राफ तेजी से बढ़ा है यह सब इन फर्जी सेक्युलर नेताओ की चुप्पी से हुआ उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती बिहार में तेजस्वी यादव , नीतीश कुमार और चिराग पासवान मुसलमानो की आवाज़ मजबूती से उठाते तो आज देश का मुसलमान किसी ओवैसी की आवाज़ नही सुनता ।

