प्रशांत किशोर के ‘जन सुराज’ पर ‘लूटपाट कंपनी’ का ठप्पा: एक नए राजनीतिक प्रयोग की अग्निपरीक्षा
पटना, [आज की तारीख: 8 जुलाई, 2025]: बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय लिखने का दावा करने वाले चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज’ अभियान, जिसे अब एक राजनीतिक दल का स्वरूप दिया जा रहा है, इन दिनों ‘लूटपाट कंपनी’ जैसे गंभीर आरोपों के भंवर में फंसा हुआ है। यह केवल एक राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप नहीं, बल्कि एक ऐसे प्रयोग की अग्निपरीक्षा है जो बिहार की पारंपरिक राजनीति को बदलने का दम भर रहा था।

‘लूटपाट कंपनी’: आरोप और गहराता रहस्य
‘जन सुराज’ के पूर्व सदस्यों और कुछ असंतुष्टों द्वारा लगाए गए इन आरोपों ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। ये आरोप सिर्फ वित्तीय अनियमितताओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि संगठन के आंतरिक कार्यप्रणाली, कर्मचारियों के साथ व्यवहार और प्रशांत किशोर के ‘एकल नेतृत्व’ पर भी सवाल उठाते हैं।

अघोषित ‘कॉर्पोरेट’ ढाँचा?: आरोप लगाने वालों का दावा है कि जन सुराज का संचालन एक राजनीतिक दल से अधिक एक निजी कंपनी की तरह हो रहा है। इसमें पारदर्शिता का अभाव है, खासकर वित्तीय मामलों में। फंड कहाँ से आ रहा है और कहाँ खर्च हो रहा है, इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं है। कुछ पूर्व कार्यकर्ताओं ने तो यहाँ तक दावा किया है कि उन्हें वादे के मुताबिक भुगतान नहीं मिला या उनके खर्चों को उचित तरीके से reimburse नहीं किया गया।

‘एकला चलो’ की कीमत: प्रशांत किशोर अपने अभियान में ‘जनता के बीच से नेतृत्व’ को बढ़ावा देने की बात करते हैं, लेकिन आलोचक कहते हैं कि यह केवल कहने भर की बात है। संगठन के भीतर सारे महत्वपूर्ण निर्णय पीके स्वयं लेते हैं, जिससे जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं को हाशिए पर महसूस होता है। ‘लूटपाट’ शब्द यहाँ केवल पैसे के संदर्भ में नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं के समय, ऊर्जा और राजनीतिक आकांक्षाओं के कथित शोषण के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जा रहा है।

वादे और यथार्थ का अंतर: ‘जन सुराज’ बिहार में ‘सही लोगों’ को राजनीति में लाने और एक नए राजनीतिक विकल्प के रूप में उभरने का दावा करता है। लेकिन, जब संगठन के भीतर से ही ‘लूटपाट’ और ‘शोषण’ के आरोप लगते हैं, तो यह इसके मूल वादों पर ही सवाल खड़े करता है। क्या यह वास्तव में एक जनता का आंदोलन है या प्रशांत किशोर की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का एक नया मंच?

पीके का पलटवार: ‘साजिश’ बनाम ‘कठोरता’
प्रशांत किशोर इन आरोपों को लगातार खारिज कर रहे हैं। उनका मानना है कि यह उनके अभियान को बदनाम करने की एक राजनीतिक साजिश है, खासकर उन लोगों द्वारा जो ‘जन सुराज’ की बढ़ती लोकप्रियता से घबराए हुए हैं।

“असफल लोगों का रोना”: पीके अक्सर कहते हैं कि जो लोग जन सुराज की कठोर कार्यशैली और समर्पण की मांग को पूरा नहीं कर सके, वे अब अपनी विफलता को छिपाने के लिए ऐसे आरोप लगा रहे हैं। उनके अनुसार, यह अभियान ‘आराम की कुर्सी’ पर बैठकर राजनीति करने वालों के लिए नहीं है।

नैतिकता का दावा: प्रशांत किशोर यह भी दावा करते हैं कि उन्होंने अपने पूरे करियर में कभी किसी से पैसे नहीं लिए और वे पूरी ईमानदारी से काम करते हैं। वे इन आरोपों को अपने स्वच्छ राजनीतिक रिकॉर्ड पर धब्बा लगाने की कोशिश मानते हैं।

बिहार के सियासी अखाड़े में ‘जन सुराज’ का भविष्य
ये आरोप ऐसे समय में लगे हैं जब ‘जन सुराज’ बिहार में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश कर रहा है। प्रशांत किशोर की पदयात्रा और लगातार जनसंपर्क ने उन्हें एक पहचान तो दी है, लेकिन इन आरोपों ने उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रशांत किशोर और उनकी टीम इन आरोपों का सामना कैसे करती है। क्या वे वित्तीय पारदर्शिता लाकर या अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली में बदलाव करके इन संदेहों को दूर कर पाएंगे? या फिर ये आरोप उनके नए राजनीतिक सफर में एक बड़ी बाधा बनकर उभरेंगे? बिहार की राजनीति, जो हमेशा से अपने अनूठे रंग और दावों के लिए जानी जाती है, में ‘जन सुराज’ का यह प्रयोग अब ‘लूटपाट कंपनी’ के आरोपों के साथ एक नई अग्निपरीक्षा से गुजर रहा है।